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"बिछा लहू की दीवारें..
समेट सामंतवाद के औज़ार..
लूटा भ्रष्टाचार के कतारें..
जला अंधविश्वास के गलियारे..
चलो..
निर्माण करेंगे..
एक सुरमई धरती का..
एक विशाल इतिहास का..
जीवन के हर उल्लास का..
चलो..
तर्पण करें..
'अहम्' को..
सर्वेश हो..
मातृभूमि फिर..
चलो..
स्वरुप करें जीवंत..
लिखें नयी लेखनी..
हो मानवता का सम्मान..
स्वच्छ मानसिकता..
चलो..
बढे चलो..
भारत-माँ की सुनो पुकार..
करो..
शत्रुओं का संहार..!!!"
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Friday, October 14, 2011
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6 comments:
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
चलो..
तर्पण करें..
'अहम्' को..
सर्वेश हो..
मातृभूमि फिर..
aameen
धन्यवाद मयंक साहब..!!!
धन्यवाद रश्मि प्रभा जी..!!
बेहतरीन लिखा है, अच्छे शब्द
शत्रुओं के संहार..की अभिलाषा शब्दों में कूट-कूट कर भरी हुई है...सार्थक प्रस्तुति
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