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"माँ माँगती है..
लेखा-जोखा..
छलनी होती..
हर क्षण..
करुणामयी झोली..
जिसकी..
क्या कोई व्यंग..
सुशोभित कर सकेगा..
इसका धराताल..
कब तक बिकेगी..
अपने *जन-कर से..
मर्यादा की थाल..
कब तक सजेगी..
चिता मानवीय-मूल्यों की..
पहन विश्वास की खाल..
लज्जाती क्यूँ नहीं..
ए-मानुष तेरी नयन-धार..
लुटती संस्कृति डाल-डाल..!!"
*जन-कर = संतान के हाथ..
...
प्रियंकाभिलाषी..
२८-०८१-२०१२..
2 comments:
बहुत सुंदर
धन्यवाद संगीता आंटी..!!!
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